ये महान दृश्य है...
आजादी का समय, बरसों का स्वप्न, खुली हवा में सांस, औऱ ऊपर लहराता तिरंगा। सोचने में आता है कि फहराने वाले के मस्तिष्क में क्या चल रहा होगा?
वह जो नीचे खड़े हैं, तिरंगे को देख रहे हैं, नेहरू को देख रहे हैं, उनका दृश्य सीमित है, विशाल सच्चाई तो दूसरी ओर से दिखती है।
क्योंकि ऊंचे किले की प्राचीर पर खड़े होकर, दूर तक दिखता है...
ये विशाल जनसमूह !!
जो वोटर नहीं, कार्यकर्ता और समर्थक नहीं, मुग्ध श्रोता भी नहीं हैं।
उन्मादित गर्वीलों का जमावड़ा नहीं है, ये दीन हीन, आर्थिक- सामाजिक रूप से निचुड़ चुका एक राष्ट्र है।
अंगभंग के ताज़े रिसते घाव के साथ, घिसटते हुए भी जश्न मनाने आया है। वो खड़ा होकर तिरंगे की लहरों के संग डोल रहा है। अपने देश, अपने नेता की जयकार कर रहा है।
यह डराता है।
अगर आप मनुष्य हैं, तो बिलकुल डराता है।
केंद्रबिंदु होना, वो भी आशा से भरी लाखों आंखों का, आसान थोड़े ही है। क्या नेहरू, दबाव महसूस कर रहे थे?
इस किले से कुछ दूर ही, हथियारों के साथ कुछ लोग, आग लगा रहे हैं, घाव बांट रहे हैं और शिकार खोज रहे हैं, उनकी भी एक विचारधारा है।
या शायद नहीं है….
कुछ का आक्रोश है, कुछ के लिए मौका है औरों के घाव में अपनी मजबूती देखने की हुनक है।
क्या नेहरू का ध्यान उस धुएं के गुबार पर गया होगा?
या कैबिनेट की अगली बैठक को सोच रहे थे?
देश ये आजाद हुआ है, बना नहीं है...
सीमाएं तय नहीं हैं, देश के भीतर ही 500 अलग अलग देश हैं। त्रावणकोर, जूनागढ़, हैदराबाद, राजपूताना, कश्मीर.. दर्जन भर दूसरे भी अलगाव चाहते हैं. बाहर और भीतर की सीमाओं पर तनाव है।
पर सेना नहीं है, खुद उसमे बंटवारा चल रहा है. मुट्ठी भर हथियार, दर्जन भर जहाज, और फौजी..
उनका भी रेजीमेंट दर रेजिमेंट बंटवारा होना है अभी। कुछ पाकिस्तान जाएंगे, कुछ इंग्लैंड जाएंगे
राज्य नहीं है, पुलिस नहीं है, अफसर भी आधे इंग्लैंड लौट रहे हैं, जहां थोड़ी कुछ व्यवस्था है, अभी पक्की नहीं है….
नियम नहीं बने, कोई विधान नहीं है। चारों ओर धुंधलापन, आतुर आंखों की आशायें, धुआं..
और जलते मांस की गंध..
ऊबे जवाहर ने क्या ऊपर देश की आस तिरंगे को देखा होगा?
पिता तो नहीं रहे, तो पितातुल्य के ही पैरों में बैठकर कुछ सोचा जाये, पूछा जाये- इसकी गिरहें कहाँ से सुलझाना शुरू करूँ, बताओ न बापू।
पर वो निठुर भी इस वक्त पास नहीं ..
दूर बैठा है, हजारों मील.. कलकत्ता की हैदर मंजिल, मियांवली की झुग्गी बस्ती में पनाह लिया वो वृद्ध, आजादी से उत्साहित नहीं, दंगे रोकने के लिए एक मुसलमान के घर सोया है।
गांधी दिल्ली आज नहीं लौटेंगे…
कल भी नहीं, अगले हफ्ते भी नहीं, क्योंकि वो तो दंगाग्रस्त इलाकों में जाएंगे, जलती बस्तियों के बीचों बीच, नंगे पैर घूमेंगे।
क्यों?
इसलिए कि जिस धरती पर इतना खून बहा हो, उस पर चप्पल पहनकर कैसे चलें!!
नेहरू ने फिर तिरंगे की ओर देखा होगा, और ताकत बटोरकर उन टिमटिमाती आंखों के सामने, वे मशहूर शब्द कहे होंगे!
रात को जाग कर लिखा भाषण पढ़ा होगा। भीतर जलता हुआ दीपक जैसे सामने औरों को रोशन करे।
भाषण खत्म होता है।
सामने खड़े लाखों हाथ उठते हैं, तालियां बजाते हैं और फिर...जलसा खत्म।
यह तसवीर ले ली जाती है।
जिसे आज आप देख रहे हैं, पचास, सौ या दो सौ साल बाद भी यह तसवीर देखी जाएगी। जो दिखता है, वो तो सब देखेंगे, जो नहीं दिखता, कुछ ही लोग देख सकेंगे.
क्या आपने देखा??
यह महान दृश्य है।
Aditya
MJMC3
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